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________________ अथ श्री संघपट्टका - (१७७) www - - यदुक्तं॥ श्रावकविधि मनिद्घता श्रीविरहांकननिवसिज तत्थ सहो, साहूणं जथ्थ होई संपाठ ॥ चेहरा जम्मि, तदन्नसाहम्मिया चेव।। अर्थः-गृहस्थने पण जे जगाए साधुनो विहार न तो होय तेवा स्थळमां नरसर्ग मार्गे रहेवानो अधिकार नथी. जे माटे श्रावक विधिने कहेता श्री विरहांक तेमणे कडं जे, त्यां श्रावक रहे ज्यां साधुनुं आगमन तुं होय तथा ज्यां चैत्य देरासर साधर्मिक र हेता होय ते जगाए रहे. ..टीका:-तथाऽक्षयाऽविनश्वरीली वीमूलधनंगृहिणादि जिनगृहं कारित्वता शीर्णजीर्थतत्समारचनाय समुद्घके अव्यं निक्षिसं ॥ तस्य च अव्यस्य वृध्ध्यादि वितिलालेन जिनगृह समारचनया नवत्याक्या नीवी. अर्थ:-जळी अक्षय एटले नाश न पामतुंए मूल धन कीयु तो जिनधरने करावतो एवो गृहस्थ तेणे परतुं अथवा जिर्ण अतुं एवं जिनघर तेने समारवाने अर्थे माजनामां ताख्युं तेने सूल धन कहीए ते अव्यने वधारवाथी जे लास थाय तेणे करीने जिनघरनी सार संजाळ थया करे माटे ए धन अक्षयनीवी एप्रकारे कहेवायचे. टीमा--तथाहि यस्मात् एवमनेन प्रकारेण इंदंजिनगृहं ज्ञेयं वैशतरकांम् ॥ एतमुक्तं जवति ॥ तन नगरादौ स्थितानां हि
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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