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________________ (१७०) - अथ श्री संघपट्टक - अर्थः-एज कारण माटे निश्चे गीतार्थोये ए चैत्यवासनी आचरणा निवारण करी तोपण केटलाक आ लोकना सुखमां लोलुपिने परलोकनी अपेक्षा रहित एवा लिंगधारी पुरुषोये श्रादर करी. वळी ते का जे हरिनादिक आचार्यनी ते प्रकारनी प्रवृत्ति के एटले चैत्यमा रहेवानी प्रवृत्ति सांनळीए बीए माटे आ प्रवृत्ति बहु पुरुषोए अनुमोदेली ने एम जे कधु ते पण शुं हरिजअादि श्राचार्यनी तेवी प्रवृत्ति संजळाय ले ते लौकिक वातनी परंपराथी संनळाय के ते हरिलअसू रिना ग्रंथने विषे चैत्यवासतुं प्रतिपादन कर्यु ने तेथी संनळाय . ? टीका-न तावदायः॥ प्रमाणशून्यस्यप्रवादपारंपर्यस्यश्रदारद इत्यादिवद सत्यत्वात् ।। अस्त्येवात्र तद्ग्रंथेषु चैत्यवास प्रतिपादन मेव प्रमाणं द्वितीयः पद इतिचेत्॥नातद्ग्रंथार्थपर्यासोचनेन यतीनां चैत्यवासनिषेधाध्यवसायात् ।। . अर्थः-तमा पेहेलो पक्ष जे लोकनी परंपरारुप तेतो प्रमाण शून्य एटले लोकनी वातनुं कां प्रमाण शास्त्र चर्चामां अपाय नही केम जे कोइए कडं जे तुं आंख राख, इत्यादि लोक वचन अ. सत्य ले माटे तारो ए पहेलो पक्ष खंगन थयो एटले युक्त नथी. ने वीजो पक्ष जे ए हरिजन सूरिना ग्रंथने विषे चैत्यवासप्रतिपादन कर्यु ने एम जो कहे तो तेनो उत्तर जे ए हरिनमसूरिना ग्रंथना अर्थ- पूर्वापर विचारी जोवू तेणे करीने यतिने चैत्यवास न करवो एज निश्चय थाय ने
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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