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________________ ( १६६ ) +8 अथ श्री संघपट्टकः टीका: - ॥ यदाह ॥ कालोवि वित्तह करणेगं तेथे बहोइकरगं तु ॥ नहि एयंमिविकाले विसाइ सुहयं असंत ॥ अर्थ: खोडं काम करवामां कालतुं श्रालंबन प्रमाण गयाय नहीं केम के या कलमां पण मंत्रित कर्या वगर विषादिक खाTr] प्राण जाय वे. टीका:- किंच के गुरु लाघवचिंता किंस्तोक गुणपरित्यागेन प्रभूततम गुणेोपार्जनं ॥ यदाह ॥ अप्पपरिया एवं बहुतरगुसाद जर्दिहोइला गुरुलाघव चिंता जम्हानानुववन्नति ॥ अर्थः- बळी ते कही जे गुरु लाघव चिंता ते कइ बे. शुं थोमा गुणना त्यागे करीने अतिशे घणा गुपनुं उपार्जन कर एवे के बीजी बे. जे माटे शास्त्रमां कह्युं ठे जे अल्पनो परित्याग करीने श्रतिशे घणा गुणनुं ज्यां साधन बे ते गुरु लाघव चिंता कहीए. टीका: -- तथाहि अस्यांचैत्यवासा चरणायां तीर्थानु छित्यादयो नूयांसो गुणाः ॥ दोषश्च देवचिताकरणेन जव्यस्तत्रांगी कारोऽल्पइति ॥ होस्विद् गुरोर्भगवतो लाघवं श्रवज्ञाचिंतयेति ॥ अर्थः- तेज कहे वे जे था चैत्यवासनी थाचरणाने दिपे तीर्थनो उच्छेदन थाय इत्यादिक घणा गुण ठे ने दोषतो देवती चिंत्या करवी तेथे करीने द्रव्य स्तवनो अंगीकार करवारुप अल्प वे इ
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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