SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 8. अथ श्री संघपट्टकः ~ - ~ अर्थः-था कल्पनाष्यना वचनमां श्रवसन्नादिक ते निश्राकृत एवं जे चैत्य तेमांज वंदन करवा जाय जे एम कर्तुं माटे बीजी जगाऐ रहेता एवा ते पासस्थादिक तेमने ते निश्राकृत चैत्यने विषे जवानो संजव , ने जो ते चैत्यमांज रहेता होततो यतिने अर्थे बाहिर मंगपर्नु करवु तथा तेमनुं चैत्यने वि वंदनने अर्थे श्रावq एबे वाना घटे नहीं केम जे ते जो चैत्यमा रहेता होततो तेमने अर्थे मंगप करत नहीं ने तेमने पोताना स्थानथकी चैत्यमां श्राववू पण न कहेत माटेज आगम वचने करीने निश्राकृत शब्दनो अर्थ विचारी जोतां श्रागमने विषे निश्राकृत शब्द कहेवाने मिषे यतिने चैत्यवास करवो एम सिद्ध यतुं नथी. टीकाः-निस्सकमश्त्यादिनाहि राजनिमंत्रादिषु पुष्टालंबनेन प्रत्यासनग्रामादेनिश्राकृत वैत्ययात्राद्यवसरे समागतानां सुवि-, हितानां वंदनविधिरनिहितः॥वस्तुतस्तूत्सर्गेण तत्र पार्श्वस्थादि संसर्गपरिजिहीर्षया प्रत्यहंवंदनमपि निवारितमेव ॥ अर्थ:-निस्तकम इत्यादिके करीने तो कोइक राजानुं निमंत्रण आदिककार्य प्राप्त थयु होय तो पुष्टालंबन जाणीने समीप रहेला गामथी निश्राकृत चैत्यनी यात्रादिकना अवसरने विषेश्राव्याजे सुविहित तेमनो वंदन विधि कह्यो ने वस्तुताये तो नत्सर्गथी त्यां पासच्थादिकनो संबंध थाय तेनो त्याग करवा माटे निरंतर ते चैत्यमां वंदन करवानुं पण निवारणज कर्यु ठे. टीका तत्थाएसो जङ्सु निस्समिति कल्पनाष्यवचनात् ॥
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy