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________________ ( १५५ ) -4 अथ श्री संघपट्टकः श्रधाकर्मादि दोष रहित पणुं ढें ए हेतु माटे, ए प्रकारना हेतु तो मोए क एवा न्याये करीने चैत्यनो उपभोग करतां देव अव्यनो उपभोग थाय बे इत्यादि दोष करीने शास्त्रनी रीते बाधित लागे े. माटे ए जे तसारो आधाकर्मादि दोष रहित रूपी हेतु ते देवानास थयो एटले खोटो थयो . टीका: - यदपि निस्सकमेत्यादिसिद्धांतवचनाच्चैत्यावासज्युपगम तदप्यविदितांगमा निप्रायस्य जवतो वचः, सम्यक् निश्राकृत शब्दार्थाऽपरिज्ञानात् । नहि यत्र साधूनां निवासारेप निश्राचात्रता जवति तन्निश्राकृतमिति निश्राकृत शब्दार्थः ॥ किंतहि यद्देशतः पार्श्वस्थादिप्रतिबोधितश्रावकैः स्वयं तथा विधिमकुर्वीणैर विविधि श्रद्धालुनिः पार्श्वस्थादीनां चैत्यगृहादन्यत्र वसतामेव निश्रया निर्मार्पितं तन्निश्राकृतमिति अर्थ:-वळी जे तुं निस्सकन इत्यादि सिद्धांतना वचनथी चैत्यवास गिकार करवानुं कहे दे ते पण आगमना अभिप्रायने न जाणतो. जे तुं ते तारु वचन के, केम जे निश्राकृत शब्दना अर्थ - नु सारी रीते तने ज्ञान नथी. तेथी एम कर्तुं बे जे ज्यां साधुनो निवास होय ते द्वारे निश्रा आधीन बे एटले जे साघुनी निश्राए कर्यु ते निश्राकृत कहीए, एम निश्राकृत शब्दनौ अर्थ तारा कह्या प्रमाणे नथी, त्यारे शो बे ! तो जे देशथी पासथ्यादिक पुरुषे प्रतिवोध कर्या पण पोते जेम शास्त्रमां विधि को वे ते प्रकारे विधि मार्गने न करी सकता था विधि मार्गना श्रद्वालु एवा जे श्रावक तेमणे चैत्य घर थकी वीजे रहेता जे पासथ्यादिक तेमनीज निश्रा
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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