SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१५०) 8. अय श्री संघपटक: M A and अर्थः ते उपर कल्पनाष्यनुं वचन प्रमाण थापे जे जे. . टीकाः-एवंच यदाबहिर्ममप निषेवणादिनापि प्रायश्चित्ता पत्तिरनिहिता तदा का कथा गर्लागारादिपरिहारेण शालाबलानकादिष्ववस्थाने यतीनां, तत्रततोप्यधिकतरदोषसंन्नवादिति अर्थः-ए प्रकारे जो बाहिर मरुपमा निवासादि करे तो पण प्रायश्चित्तनी प्राप्ति कही ले तो केवल गारादिकने मूकीने श्रा. सपास निवास करनार यतीनी तो शी वात कहीए केम जे त्यां ते थकी पण अतिशे अधिक दोषनो संजव ने ए हेतु माटे टीका:-यद्यप्यन्यथा जिनप्रतिमेत्यादिना श्राकानां गृहबहिर्वासप्रसंजनं ॥ तत्रापि तदवग्रहकल्पितभूलागस्यैव देवालय त्वात् अन्यस्य च सकलस्यापि गृहिगृहत्वात् तत्रवसतांश्राकानां नाशातनासंनवः, जिनमंदिरस्यतु समस्तस्यापि जिनोद्देशेन निमापितत्वात् कथंतदेकदेशेपि वसतांयतीनां नाशातानादोषः स्यादिति ।। अर्थः वळी अन्यथा जिनप्रतिमा इत्यादि वाक्ये करीने श्रावकने घर थकी बारशे रहेवानो प्रसंग थशे एम जे कह्यं तेनो नुत्तर पण एम जे जे त्यां पण जिनमंदिरनो अवग्रह कल्पेलो एटलोज जे पृथ्वीनो लाग तेने देवालयपणुंडे ने वीजा समस्त नागने तो ग्रहस्थy घर एवी संज्ञा माटे ते घरमा रहेनार श्रावकने आ
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy