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________________ +8 अथ श्री संघपट्टकः ( १४७ ) टीका:- तएव तद्दर्शने तदवग्रहभूमिप्रदेशे वा संचमएव विधातव्यो न त्ववज्ञा ॥ यदुक्तं ॥ इत्तो प्रोसरणाइसु, दंसण मित्ते गयाइ श्रोरणं ॥ सुच्चइ चेश्य सिहराइएस सुस्तावगाणं पि ॥ गुरुदेवग्गह भूमीइ जुत्तश्रोचे व हो परिजोगो ॥ इ5फल साद्गो सफलसादगो हरा ॥ अर्थः-एज कारण माटे ते जगवंतना दर्शनने विषे वा तेमनी अवग्रह भूमिना प्रदेशने विषे नक्किनुं श्रधिक्यपणुं कर पा वज्ञा तो नज करवी ज़े माटे शास्त्रमां क बे जे ॥. टीकाः - इतरथाशातनाप्रसंगात् तस्याश्चानंतसंसारकारण त्वात् ॥ युक्तं ॥ प्रसायण मित्तं; श्रसायणवऊपाइ समत्तं ॥ [श्राणानिमित्तं कुव्वइ दीइंच संसारं ॥ तदंतर्वासे तु यतीनां सततम्रशनपानशयनादि क्रियासंभवादवश्यंना'विनी भगवदाशातना || " अर्थः- जो एम न करे तो श्राशातनानो प्रसंग थाय ने ते या शातना वे ते अनंत संसारनुं कारण बे ए हेतु माटे शास्त्रमां क बे जे श्राशातना एज मियात्व बे ने शातनानुं वर्ज ए सम कित a. म जे शातना निमित संसारनी वृद्धि करे बे माटे ते चैत्यमां निवास करे त्यारे तो यतिने निरंतर जोजन तथा पान तथा शयनादि क्रिया करवानो संभव बे माटे अवश्य भगवंतनी आशातना थशेज. टीका:- अत एव पूजार्थं जिनसदनांतर्वर्तिनां तद्न क्रिसतां पूर्वाचार्यै रशनादिक्रिया निवारिता ।
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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