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________________ ( ११८ ) अथ श्री संघपटकः टीका: - यथेोक्तं ॥ सामान्न विही नाणी ओ, जस्सग्गो तव्विसे सिश्रो इयरों ॥ ॥ पाणिवहाइ निवत्ती तिविदं तिविदेष जाजी'वं ॥ पुढवाइस सेवा, नृप्पन्ने, कारण मि जयणाए ॥ मिगर हियस्सहियस्सव, ववाओ होइ नायव्वो. अर्थ :- सामान्य विधि ते उत्सर्ग बे, अने विशेष विधि ते अपवाद बे, त्यां यावज्जीव त्रिविधे प्राणिवध न करवो ए उत्सर्ग छाने कारण उपजतां यतनाथी पृथ्व्यादिकनी सेवना निदंजी : पुरुष करे तो ते अपवाद बे. टीका: -- अत एव युगप्रधानैरनेका तिशय निधानैरपि श्री .वैरस्वामी पादै महादुर्निदेण हेतुना विद्यापिंगमुपभुज्यापि तस्य चाधाकर्म भोजनन्यून दोषस्यापि ॥ पिंक असोहयतो प्रचरिती इत्यसंस नत्थि । चारितंमि असने सव्वा दिरका नि-- रत्थिया ॥ इति वचनादू दुष्टतां पर्यालोचयद निस्तीर्थाव्यव- च्छित्तये शिष्यमेकमन्यत्र प्रेष्य सपरिवारैः प्रवचन विधिनाऽनशनं प्रतिपेदे || - प्रर्थ:-एज कारण माटे युगप्रधान एवा ने अनेक प्रतिश घनाजंकार एवा श्री वैरस्वामीए ज्यारे महा दुकाली पमी त्यारे शुद्ध भोजननी प्राप्ति न थइ ए हेतु माटे श्राधाकर्म भोजनथी न्यून दोष युक्त एवो विद्यापिंग तेनुं भोजन कयुं; तोपण शास्त्रमां कहुं जे जे अशनादिक आहार प्रत्ये अणशोधतो अचारित्री "कहीए मां संशय नथी, चारित्रने जावे सर्व दिशां निरर्थक ठे. : ए वचनथी ते भोजनना दुष्टपणानी श्रलोचना करता वैरस्वामी 1
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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