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________________ . . अथ श्री संघपट्टका - (१०३) MrwwwmannY न्यतर गणधर बीजी पोरुषीमां देशना करे ते प्रकारे आ कालना आचार्योने पण धर्मदेशनादिकने विषे ते उपर बेसवं ते वीक के. टीकाः-अत एव लगवान् दशपूर्वधरः श्री वैरस्वामी, अहो नगवतः सर्वा तिशायिनी व्याख्यालब्धिः किंतु न तादृशी रूपसंपदिति राजांतःपुरावचनाकर्णनानंतरं द्वितीयेन्दि नैसगिकी शरीरसौंदर्यसंपदमावि व्य यत्यऽनुचितमपि हिरएमयकुशेशयमध्यास्य प्रवचनप्रनावनायै संसदि धर्मकर्मकथा प्रथयांबल्बेति ॥ ततः सिझमिदमाचार्याणां गब्दिकाद्यासन मुपादेयं, प्रवचनप्रन्नावनांगवान्, सम्मत्याद्यध्ययनवदितिजा अर्थ:-एज कारण माटे नगवान् दश पूर्वधर श्री वयेरस्वामी तेमने देखीने राजाना अंतेउरनी स्त्रीओए एम का जे अहो नगवान वयरस्वामीनी व्याख्यान लब्धि तो सर्व करतो. अतिशे ने पण तेवी कांश रूप संपत्ती नथी एवं वचन सांजलीने त्यार पली बीजे दिवसे पोतानी स्वानाविक शरीर सुंदरता संपत्ति प्रगट करीने यतिने अघटित एवं पण सोनामय कमल तेने विषे वेसीने प्रवचननी प्रस्तावना थवाने अर्थे सन्नामां धर्म देशना विस्तारता हवा ए कारण माटे ए वात सिद्ध थइ जे आचार्योंने गादी आदि आसन ग्रहण करवं, केमजे प्रवचननी मनावनानुं अंग ए हेतु माटे संमति आदिक शास्त्रना अध्ययननी पेठे जेम संमत्यादिकनुं अध्ययन बे ते प्रवचननी प्रजावनानुं अंग दे तो आचार्यने करवा योग्य ठे तेम. टीका:-तथा सावा सपापमाचरितं आचरणा गृहिणां नियतगउनजनादिलक्षणं ॥ तत्रादर श्राग्रहः॥ आचरणा हि
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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