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________________ re. अथ श्री संघपट्टको mmmmmmm wlAAIJALA करीने निरंतर चैत्यनी पूजा अर्चादिक चिंताये करीने तथा तीर्थनी प्रनावनाये करीने अतिशे पुण्य उपार्जन करवानो संजव ने ए हेतु माटे, ने ते श्रावकनो उकार का विना तो प्रवचननो उच्छेद थवानो प्रसंग जे ए हेतु माटे उव्यनो अंगीकार ते तो आधुनिक मुनिने संगत , एटले करवो घटतो होय ने शुं ! एम जणाय . 'टीका तथा श्रावकस्वीकारोप्यद्यतनमुनीना मुत्सर्गापवादपदवी विदुराणां न नियुक्तिकः॥ पूर्व हि कालस्य सौस्थ्यादतिशयवत्पुरूषबाहुल्यात् कुतीर्थ्यानामल्पीयस्त्वात् लोकस्य प्रायेणासंक्लिष्टत्वात् च जैनमतबाह्या अपि जनाः सितांब. रनिकुन्यः सबहुमान लिक्षादिकं व्यतरिष्यन् ॥ सांप्रतं तु प्रापुर्नवद्भरिकुतीर्थिकसार्थकुमतकदर्थितांतकरणतया जैनमागैवैमुख्येन तेषां तथाविधश्वेतांबरदीकाया अनावात् ॥ अतः श्राद्धस्वीकारं विना लिक्षावातेरनुपपत्तेः युक्तं संप्रति तस्वीकारः॥ अर्थः वली ते लिंगधारी सुविहित प्रत्ये बोले जे जे श्रा कालना उत्सर्ग अपवाद मार्गना जाणनार मुनिने पोताना श्रावक करी राखवा ते युक्त ॥ केम जे पूर्वे तो काल सारो हतो ने अतिशयशाली घणा मोटा पुरूष हता ने कुतीर्थिक घणा जंग हता ने लोक पण प्राये सारा हता ए हेतु माटे जैन मत विनाना पण लोक श्वेतांबर साधुने बहु मान सहित लिदादिक आपता श्रने या कालमां तो प्रगट थयो जे घणो कुतोर्थिकनो समूह तेनो जे कुंमत तेणे करीने कदना पाम्यां जे अंतःकरण ते हेतु माटे तेमने ते प्रकारे श्वेतांबर साधुने श्रापवानी इच्छानो पण अन्नाव
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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