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________________ 8. अथ श्री संघपट्टका (७) मधुर स्वाध्यायनों शब्द तेने सांजलीने तथा केटलाक साधुनों असंख्य लावण्य शोनानां धारण करनार सुंदर शरीर तेमने देखीने विरहिशी जुवान स्त्रोयोने काम क्रीमा करवानी इच्छा थाय ए श्रादि घणा दोष प्रगट थाय. ए प्रकारे स्त्रीयोने तथा साधुने परस्पर निरंतर रूपनुं देख गीतनुं सांजलq ए आदि कारणे करीने दुःखदायी महा कामदेव संबंधी विकार करीने चारित्रनो नाश-थाय ए श्रादि घणा दोष प्रगट थाय माटे साधुए परघरमां निवास न करवो. . . टीका-॥ यथोक्तं ॥ श्रीवजियं वियाणह इत्थोएं जथ्थ काणरूवाणि ॥ सदायन सुच्चंती, ताविय तेसिं न पेच्छेहि ॥बनवयस्स अगुत्ती, बजानासो यपीश्वुट्ठीय ॥ साधु तवोवणवासो, निवारणा तिथ्य परिहाणी अर्थ:-ते शास्त्रमा कडं ले जे साधुने रहेवानुं स्थान स्त्री वर्जित जाणवू जे स्थाने स्त्रीयोनां रूप तथा शब्द न देखाय न संजलाय तथा ते स्त्री पण ते साधुने न देखे एवं स्थान साधुने रहेवा योग्य बे केम जे एवी रीते न होय तो ब्रह्मव्रतनी गुप्ति न रहे तथा लजानो नाश थाय तथा प्रीतिनी वृद्धि थाय, माटे साधुने तपोवनमां निवास करवो जेथी तीर्थनी हानिनुं निवारण थाय.. टीका:-तथा लौकिका अन्याहुः ॥ शृणु हृदयरहस्यं य प्रशस्यं मुनीनां, न खलुन खलु योषित्संनिधिः सं विधेयः।। हरति हि हरिणादी विप्रमदिनुरप्रप्रहतशमतनुत्रं चित्तमप्युन्नताना. अर्थ:--लौकिकमां पण एम कहे जे 'जे, मुनिने पण वखा
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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