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________________ अथ श्री संघट्टक (<) ही माटे, ने जो प्राणातिपातादिकनुं गीतार्थ आचरण करता त तो ए हेतु विषमां गयो कहेवात, माटे एम तोबे नहीं, तेथी अनुमान प्रयोग निर्दोष सिद्ध भयो. टीका:- ॥ किंच, यतीनां चैत्यवासमंतरेण सांप्रतिकजिनजवनानां हानिः स्यात् ॥ तथाहि ॥ पूर्वं कालानुनांवादेव श्रीमंतोऽव्यग्रचेतसो देवगुरुतत्वप्रतिपत्तिभर निर्भरतया ह्येतदेव परं तत्व मिति मन्यमानाः श्रावकाचैत्यचिंत्यचिंतां परमादरेणाऽकरिष्यन् ॥ सांप्रतं तु दुःषमादोषा नक्तंदिवं कु 'टुंब संबल चिंता संतापजर्जरितचित्ततयेतस्ततो धावतां प्रायेण दुर्गतानां श्राद्धानां स्वजवनेध्यागमनं दुर्लनमास्तां जिनमें - दिरे तथाच कुतस्त्या तत्समारचनादिचिंता तेषां अर्थ:- वली यतिने चैत्यवासविना या कालनां जिनजवननी हानि थाय. तेज देखा मे बे जे पूर्वे कालना महिमाथीज जे श्रीमंत लोक हता ते व्यग्र चित्तवाला न हता. ने देवगुरु तत्वनी घणी नक्ति नरेला इता, ने ते देवगुरुने एज परमतत्व बे एम मानता एवा जेने श्रावक ते चैत्य संबंधी चिंताने परम दर क रता ने दालमां तो दुःखमा कालना दोषयी रात्रि दिवस कुटुंबनुं भरणपोषण करवानी चिंताना संतापयी चाकुल व्याकुल चित्तवाला थया े. ए हेतु माटे चारे पास दोमता ने बहुधा दरिद्रि एवा श्रावक लोकोने पोताने घेर परा वकुं दुर्जन बे तो जिनमंदिरे श्राववानी वाततो बेटे रही, माटे ते जिनमंदिरने समारखं इत्या दिक चिंता तो तेमने क्यांथीज होय ? टीका:-- श्रीमतां तु प्रतिक नमदाल सवार विलासिनी घन
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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