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________________ -g. अथ श्री संघपट्टा - (८७) AAMAAAAAnam . अर्थ:-श्रने सिद्धांतनी कसोटी समान, अने रच्यां ने अनेक आगमना उझारथी श्रेष्ट शास्त्र जेणे एवाश्री हरिनमसूरी तेमनी प्रवृत्ति संजलाय जे जे हरिजलसूरिए चैत्यवास को हतो केम जे पोताना रचेला ग्रंथोने विषे चैत्यवासन प्रतिपादन कर तेणे करीने चैत्यवासनी प्रवृत्ति के ते तेमणे जे सत्य थापी डे ए हेतु माटे चैत्यवास करवो वली या तेमना ग्रंथनुं वचन , जे जिनविंबनी प्रतिष्टाने अर्थे अथवा जिन कर्मतुल्य, तथा जिनबिंबनी प्रतिष्टाने त्यां साधु निवास ने इत्यादि टीका-देयं तु न साधुज्यस्तिष्ठति यथा च ते तथा कार्य। अक्षयनीव्या ह्येवं, शेयमिदं वंशतरकांममिति अर्थः-चैत्य साधुने आपी न दे, जेवी रीते ते साधु रहे तेम करवू अक्षय नीवीये करीने एटले मूल धननो नाश न थवा देवो, ए प्रकारे जे करवं ते वंशतरकांम जाग, एटले वंश परंपराए चाट्युं जाय. टीका:-तथा समरादित्यकथायामपि जिननवनांतर्गतप्रति-.. श्रयस्थितायाः साध्याः केवलोत्पादप्रतिपादनात् ॥ तथाधु-: निकमुनीनां बहूनां चैत्यवासप्रवृत्तिदर्शनात् ॥ यदि ह्ययं । गीतार्थानां नानुमतः स्यात्तदा कथमकवाक्यतया सर्वत्राऽप्र- " तिहतप्रसरः प्रवर्त्तते अर्थः-वली समरादित्यनी कथामां पण जिननवननाअंतर्गत जे प्रतिश्रय तेमा रहेली जे साध्वी तेने केवलज्ञान उत्पन्न थडे ठे एम प्रतिपादन कर्यु ले ए हेतु माटे. वली आधुनिक घणा
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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