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________________ (८१) 48 अथ श्री. संघका जे श्रागमनी साये विरोध नथी ए प्रकारे निस्सकम इत्यादि शास्त्र वचने करीते यात साथै मनो चैत्यवास के एवं प्रतिपादन पूर्वे कर्युबे ने गीतार्थं श्राचरण श्रागमने प्रमाण करनार पुरुषने - वश्य प्रमाण करवा योग्य डे. जे माटे शास्त्रमां कहां बे ने गीतार्थ जनो ज्ञानादिरूप कार्यं श्रालंबन करीने जे कांइ पण कार्य करे वे. तेमां थोमो अपराध अने घणो गुण रह्यो बे माटे ते सर्वने प्रमाणरूप बे. टीका :- इति जगवत्प्रतिपादितमुमुक्कुप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपागमश्रुतादिव्यवहार पचंकांतःपात्यागम विरुद्धाचरणानत्र्युपगमे च भगवदप्रामाण्यसंजनात् ॥ तथाच जगवदाशातनाप्रसंगात् अर्थः- हेतु माटे जगवाने प्रतिपादन कर्या जे मुमुक्षुने प्रवृत्ति निवृति रूप श्रागम श्रुतादि रूप पांच व्यवहार तेमांनुं श्रागमी विरोध श्रावे एवं जे आचरण तेनो अंगीकार नहीं करो तो भगवानने पण अप्रमाणपणानी प्राप्ति थशे माटे, वली नग वाननी श्राशातना थवानो प्रसंग थो ए हेतु माटे टीका:- श्राचरितलक्षणस्येहोपपत्तेः ॥ तथा चागमः ॥ असढेण समाइन्नं जं कथ्यई केई असावऊं न निवारियम • हिं, बहुगुणमणुमयमाय रियं अर्थ:-शिष्ट पुरुषे जे आचरण कर्तुं ते श्राचरण लक्षणनी सिद्धिबे, एटले शिष्ट पुरुषना सरखुं श्राचरण करवुं ते युक्त बे, ते उपर शास्त्रनुं प्रमाण बे, जे शवभाव विनाना जे पापरहित मोटा पुरुष तेमणे ज्यां जे कंडक श्राचरण कर्युते निर्दोष ठे
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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