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________________ अथ श्री संघट्टक (७३) मां रहेवानुं युक्त कहता हो तो ते वात युक्त नथी केम जे त्यां पण नवो बानो अंकुर तेनुं जक्षण करवाथी मधुर स्वर बोलती जे कोयल तेना पंचम स्वर एटले सात स्वरमां पांचमो कामोद्दीपक स्वर तेना उल्लासे करीने तथा चारे पास प्रसरतो एवा प्रफुलित मालती यादिना सुगंधे करीने वश करेलां एवां पण मन बहुल मोकला थाय एवं देखाय बे ए हेतु माटे ने पंचम स्वरनो उलास ते कामोद्दीपन थवानुं कारण वे एम भरतादि शास्त्रमां क हेतु म. ए टीका:- तथ चित्री मिषागतकामुकका मिनी संकुलत्वेन च स्त्री संसक्त्यादेरपि तत्र जावात् ॥ अथवा माभूवन्ननवरत शास्त्राच्या सपरावर्त्तनादिपराणां यतीनामेतान्या दोषाः ॥ - तथापि लोकसंचारशून्योद्याननूमौ वसतां चरटतस्करां दिनिरुपकरणापहारस्यापि संजवात्, तदपहारे च शरीरसंयम विराधनाप्रसंगात् ॥ अर्थ:- वली क्रीमा करवानी इडाए त्यां थव्यां जे कामी पुरुष ने कामिनी स्त्रीयो तेसे करीने व्याप्तपणुं वे माटे स्त्रीना' संबंध श्रादिकनो पण त्यां संभव बे ॥ श्रथवा निरंतर शास्त्रनो श्रन्यास तथा गण ए श्रादिकने विषे तत्पर एवा मुनिने ते उद्यान संबंधी दोष म था तो पण लोकना संचारथी रहित ते उद्यान जूमिने विषे रहेता जे मुनि तेमनां उपकरण पण नील चोर श्रादिक श्रा वीने हरशे एवो संभव बे माटे ते ज्यारे उपकरण गयां त्यारे शरीरनी तथा संयमनी विराधना थवानो प्रसंग प्राप्तं चाय ए हेतु माटे मुनिने उद्यानमा रहेनुं घटतुं नथी.
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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