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________________ - अर्थ श्री संघपट्टाः -- (७) ॥ ययुक्तं॥ नियकजं यरकऊंव, जे पमुतूण के विरइंतिपरकहां नियकजं व, ते सु सप्पुरिसया वसर अथः ने श्रा परोपकार तो पोतानुं कार्य मूकीने पण अवश्य करवा योग्य बे, जे माटे शास्त्रमा कडु जे जगतमा केटलाक पुरुषो परकार्यनी पेठे पोतानुज कार्य मुकीने पोताना कार्यनी पेठे पारकुं कार्य करे ले एवा परोपकारी पुरूषने विषे सत्पुरुषता निवास करे बे. टीका-तस्माद्यतीनामाधाकर्मिकनोजनमऽष्टं, संयमशरीरोपष्टंलकत्वात् ।। कटपग्रहणवत् ॥ शुकनोजनवछा ॥ तथा यतिनिराधाकर्मिकनोजनं विधेयं, श्राद्धश्रद्धावृधिहेतुधर्मदेशनवत् ॥ इति प्रयोगावप्युपपद्यते ॥ . अर्थः-ते हेतु माटे यतिने आधार्मिक जोजन कर ते निर्दोष ने केम जे संजम शरीरने राखनार ने ए हेतु माटे कल्प (वस्त्र) ग्रहण पेठे, एटले जेम वस्त्रादि ले ते संयम शरीरनुं पुष्टाखंबन बे, तेम आधार्मिक नोजन पण डे, अथवा जेम शुलोजन शरीर संयम शरीरने राखनार , तेम आधार्मिक नोजन पण ने. वली तेमज साधुए श्राधाकर्मिक नोजन पण करवा योग्य बे, केम जे श्रावकनी श्रमा वधवामां कारण ए हेतु माटे धर्म देशनानी पेठे जेम धर्म देशना , ते श्रावकनी श्रद्धा वधवामां कारण ले माटे साधुने करवा योग्य , तेम ए प्रकारे अनुमान प्रमाणना पण बे प्रयोग श्रा स्थलमा सिक थाय . . - टीका:-तथा जिनानामर्हतां गृहमायतनं तत्र वासः
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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