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________________ ४४ आगम के अनमोल रत्न (१३) भगवानं जहां विचरते हैं वहाँ का भूभाग वहुत समतल एवं रमणीय हो जाता है । (१४) भगवान जहां विचरते हैं वहाँ काँटे अधोमुख हो जाते हैं। (१५) भगवान जहाँ विचरते हैं वहाँ ऋतुएँ सुखस्पर्शवाली यानी अनुकूल हो जाती हैं। (१६) भगवान जहाँ विचरते हैं वहाँ संवर्तक वायु द्वारा एक योजन पर्यन्त क्षेत्र चारों ओर से शुद्ध साफ हो जाता है। (१७) भगवान जहाँ विचरते हैं वहाँ मेघ आवश्यकतानुसार वरस कर आकाश एवं पृथ्वी में रही हुई रज को शान्त कर देते हैं। (१८) भगवान जहाँ विचरते हैं वहां आनु प्रमाण देवकृत पुष्पवृष्टि होती है। फूलों के डंठल सदा नीचे की ओर रहते हैं। (१९) भगवान जहाँ विचरते हैं वहाँ अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध नहीं रहते। (२०) भगवान जहाँ विचरते हैं वहाँ मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध प्रकट होते हैं। (२१) देशना देते समय भगवान का स्वर अतिशय हृदयस्पर्शी होता है और एक योजनतक सुनाई देता है। (२२) तीर्थङ्ककर अर्द्धमागधी भाषा में उपदेश करते हैं। (२३) उनके मुख से निकली हुई अर्द्धमागधी भाषा में यह 'विशेषता होती है कि आर्य, अनार्य सभी मनुष्य एवं मृग पशु पक्षी और सरीसृप जाति के तिर्यच प्राणी उसे अपनी भाषा में समझते हैं और वह उन्हे हितकारी, सुखकारी एवं कल्याणकारी प्रतीत होती है। (२४) पहले से ही जिनके वैर बँधा हुआ है ऐसे भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देव प्रभु के चरणों में आकर अपना वैर भूल जाते हैं और शान्तचित्त होकर धर्मोपदेश सुनते हैं। (२५) तीर्थङ्कर के पास आकर अन्य तीर्थी भी उन्हें वंदन करते हैं।
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
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