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________________ आगम के अनमोल रत्न धारिणी के प्राणत्याग को देखकर रथी भौंचका-सा रह गया । वह कर्तव्य मूढ होगया । उसे अपने दुष्कृत्य का पश्चाताप होने लगा। इधर वसुमती भी अपनी शील की रक्षा के लिये माता का अनुसरण करने के लिये उद्यत हुई । वसुमती को आत्महत्या के लिये उद्यत होता देख, सारवान घबरा गया। वह दौड़ा हुभा वसुमती के पास आया और कहने लगा-बेटी ! इस पापी को क्षमा करो । मैने जो पाप किया है वह ही इतना भयंकर है कि जन्म जन्मान्तरों में भी छुटकारा पाना मुश्किल है। अपने प्राण त्याग कर मेरे उस पाप को अधिक मत बढ़ाओ। तेरी माता महासती थी, उसके वलिदान ने मेरी आँखे खोल दी हैं । मुझ पर तुम विश्वास करो । मै आज से तुझे अपनी पुत्री मानगा। मुझे क्षमा करो। मै भविष्य में ऐसा दुष्कृत्य कभी नहीं करूँगा। यह कह कर वह वसुमती के पैरों में गिर. पडा और अपने पापों का पश्चाताप करने लगा। वसुमती को ऊँट सवार के इस व्यवहार से विश्वास हो गया कि अब सारवान का हृदय पलट गया है। वह सारवान के साथ होगई । सारवान वसुमती को लेकर घर आया । घर आकर उसने अपनी स्त्री को कहा-वसुमती हमारी बेटी है उसे पुत्रीवत् पालना । वसुमती सारवान के घर रहने लगी और तनमन से उनकी सेवा करने लगी। कुछ काल के बाद सारवान की स्त्री वसुमती के रूप सौंदर्य और नम्र व्यवहार पर जलने लगी। उसने सोचा-कहीं यह मेरी सौत न बन जाय । अब वह वसुमती को घर से बाहर निकालने का अवसर खोजने लगी। - वसुमती को दिनरात घर का काम करते देख एक दिन सारवान ने उसे कहा-बेटी! तुम राजमहल में पली हो । तुम्हारा शरीर इस योग्य नहीं है कि घर के कामों में इस तरह पिसा करो। तुम्हें अपने स्वास्थ्य और खान-पान का भी पूरा ध्यान रखना चाहिये ।
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
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