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________________ "६५२ आगम के अनमोल रत्न के अन्तःपुर में मैने द्रौपदी जैसी स्त्री देखी है । यह सुनकर कृष्ण - समझ गये कि यह करामात नारद ऋषि की ही है। ___कृष्ण ने कच्छुल्ल गरद से कहा-ऋषिवर ! यह भापकी ही करतून जान पड़ती है । नारदजी हँसे और वहां से चल दिये। कृष्ण ने अपना दूत हस्तिनापुर मेजा और उनके साथ संदेश कहलवाया कि धातकोखण्ड द्वोप के पूर्वार्ध में अमरकंका राजधानी में पद्मनाम राजा के भवन में द्रौपदी देवी का पता लगा है अतएव पांचों पाण्डव सेना सहित पूर्व दिशा के वैतालिक-(जहाँ समुद्र की वेल चढकर गंगा नदी में मिलती है वह स्थान ) लवण समुद्र के किनारे पर पहुँचे और वहाँ मेरे आने की प्रतीक्षा करें। इधर कृष्ण वासुदेव ने भी अपनी विशाल सेना सजाई और सेना के साथ लवण समुद्र के किनारे पर पहुंचे और वहाँ पाण्डवों के साथ सारी स्थिति पर गम्भीरता से विचार किया और परामर्श करने के बाद पद्मोत्तर राजा पर चढ़ाई करने का निश्चय किया परन्तु अमरकंका पहुँचने के लिए मार्ग में लवण समुद्र था । उसे पार करना मानव सामर्थ्य से बाहर था । अतः कृष्ण वासुदेव ने तेला कर समुद्र के अधिष्ठाता सुस्थित देव की आराधना की । कृष्ण की भक्ति से देव प्रसन्न हुआ और सामने आकर बोला-आप जिसे याद कर रहे हैं वही मैं सुस्थित देव हूँ-कहिए क्या आज्ञा है, मैं आपकी क्या सेवा करूं? श्री कृष्ण ने कहा-देव ! हम धातकी खण्ड जाना चाहते हैं, 'इसलिए जाने का मार्ग दे दो।' सुस्थित देव ने कहा-आप वहाँ जाने का कष्ट क्यों उठाते हैं यदि आपका आदेश हो, तो मैं स्वयं ही द्रौपदी को लाकर आपकी सेवा में उपस्थित कर सकता हूँ और पद्मो. त्तर को उसकी राजधानी के साथ समुद्र में फेंक सकता हूँ। ___ कृष्ण ने कहा--देव ! मैं स्वयं द्रौपदी को पद्मनाभ के फन्दे से छुड़ाना चाहता हूँ। अतः तुम्हारी इतनी ही सहायता पर्याप्त है कि तुम हमें लवण समुद्र को पार करने के लिये रास्ता दो ।
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
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