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________________ आगम के अनमोल रत्न मैं यहाँ चला भाया हूँ। स्वामी ! आप मुझे अपने आश्रय में रखें। मैं आपको उत्तम से उत्तम भोजन बना कर खिलाऊंगा। महाराज ने उसे अपने यहाँ रखना स्वीकार कर लिया । समय समय पर नल महाराज को सूर्यपाक आदि विविध भोजन बनाकर खिलाता। नल के व्यवहार से महाराज दधिपर्ण उसपर बड़े खुश रहने लगे। पति की आज्ञा को शिरोधार्य करती हुई दमयन्ती पिता के घर की ओर चल पड़ी। वह अकेली थी सुनसान जंगल था । हिंस्र पशुओं की आवाज आ रही थी फिर भी वह धीरज के साथ कदम बढ़ा रही थी। मार्ग में एक सार्थवाह से भेंट हुई। सार्थवाह सदाचारी व धर्मनिष्ठ था । उधर कुछ डाकुओं ने सार्थवाह को लूटना चाहा । दमयन्ती ने उन्हें ललकारा । सती दमयन्ती के सतीत्व के प्रभाव से डाकू डर गये और भाग खड़े हुए । सार्थवाह का माल और प्राण बच गये। सार्थवाह ने सती को खूब धन्यवाद दिया और उसे साथ में माने की प्रार्थना करने लगे । दमयन्ती ने सार्थवाह के साथ जाना उचित नहीं समझा । नम्रभाव से सार्थ की प्रार्थना को अस्वीकृत कर दिया । दमयन्ती गंतव्य मार्ग की तरफ अकेली ही आगे बढ़ रही थी। मार्ग में एक भयानक राक्षस मिला । वह तीन दिन से भूखा था । सती को देखते ही वह उसे खाने के लिये झपटा । दमयन्ती राक्षस को सामने आता देख नमस्कार मंत्र का जप करने लगी। वह जरा भी नहीं घबराई । अत्यन्त शान्त मुद्रा में राक्षस से बोली-राक्षस ! तु मुझे खाना चाहता है। अगर मेरे देह से तेरी भूख शान्त होती' है तो मुझे जरा भी दुःख नहीं होगा किन्तु यह याद रख कि हिंसा के फल सदा कड़वे होते हैं । हिंसा के कारण ही जीव अनन्त संसार में परिभ्रमण करता है । राक्षस से देव बनने का सब से अच्छा उपाय अहिंसा दया और प्रेम ही है । सती के इस उपदेश से राक्षस प्रभावित हो गया और वह सदा के लिये अहिंसक बनगया । उसने अपना
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
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