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________________ ५३६ आगम के अनमोल रत्न उसी नगर में उनका भ्राता विजयघोष नामक ब्राह्मण यज्ञ कर रहा था। उस समय अनगार जयघोष मासोपवास के पारणा के लिये विजयघोष के यज्ञ में भिक्षार्थ उपस्थित हुए । भिक्षा मांगने पर विजयघोष ने भिक्षा देने से इनकार करते हुए कहा- "हे भिक्षो ! सर्वकामनाओं को पूर्ण करनेवाला यह भोजन, उन्हीं विनों को देने का है, जो वेदों के ज्ञाता, यज्ञार्थो, ज्योतिषांग के ज्ञाता और धर्म के पारगामी द्विज हैं तथा अपनी और दूसरों की मात्मा का उद्धार करने में समर्थ हैं। ऐसा सुनकर भी जयघोष मुनि किंचित् मात्र भी रुष्ट नहीं हुए। सुमार्ग बताने के लिये जयघोष मुनि ने कहा-"न तो तुम वेदों के मुख को जानते हो, न यज्ञ के मुख को। नक्षत्रों तथा धर्म को भी तुम नहीं समझते । जो अपने तथा पर के आत्मा का उद्धार करने में समर्थ हैं उनको भी तुम नहीं जानते । यदि जानते हो तोकहो ? मुनि के प्रश्नों का उत्तर देने में असमर्थ विजयघोष बोला-महामुने ! भाप ही इन प्रश्नों का उत्तर दीजिये । यह सुनकर जयघोष मुनि कहने लगे-हे विप्र ! अग्निहोत्र वेदों का मुख है । तप के द्वारा कमा का क्षय करना यज्ञ का मुख है। चन्द्रमा नक्षत्र का मुख है और धर्मों के मुख काश्यप गोत्रीय भगवान ऋषभदेव है। - जिस प्रकार चन्द्रमा के आगे ग्रह नक्षत्रादि हाथ जोडकर वन्दना और मनोहरस्तुति करते हैं उसी प्रकार उन उत्तम भगवान ऋषभ की इन्द्रादि देव स्तुति करते हैं । तुम यज्ञवादी विप्र राख से ढंकी अग्नि की तरह तत्त्व से अनभिज्ञ हो । विद्या और ब्राह्मग की सम्पदा से भी अनजान हो तथा स्वाध्याय और तप के विषय में भी मूद हो । जिन्हें कुशल पुरुषों ने ब्राह्मण कहा है और जो सदा अग्नि के समान पूजनीय है, उन्हीं को मैं ब्राह्मण कहता हूँ । जो स्वजनादि में आसक्त
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
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