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________________ પરક आगम के अनमोल रत्न अनाथ होने के कारण आपने जो भिक्षुवृत्ति को अङ्गीकार किया है उसका परित्याग कर दें, क्योंकि आज से मैं आपका नाथ हो गया हूँ ।" उत्तर में मुनि कहने लगे, "हे मगधाधिप । तुम जब कि स्वयं हो अनाथ हो तो दूसरे के नाथ कैसे हो सकते हो ? क्योंकि जो पुरुष स्वयं अनाथ है वह दूसरों का नाथ कभी नहीं बन सकता ।" मुनिराज का उत्तर सुनकर श्रेणिक सहसा व्याकुल हो उठा और - मन में विचार करने लगा - " मैंने आज तक किसी के सुख से यह नहीं सुना था कि तू अनाथ है । यह तपस्वी मेरी शक्ति, सामर्थ्य तथा सम्पत्ति को नहीं जानता है इसीलिये ऐसा कहता है । राजा अपना परिचय देता हुआ मुनि से कहने लगा कि मेरे पास नाना प्रकार की ऋद्धि मौजूद हैं। मेरा सारे राज्य में अखण्ड शासन है । मनुष्योचित सर्वोत्तम विषय भोग मुझको अनायास ही प्राप्त हैं। अनेक हाथी, घोड़े -करोड़ों मनुष्यों, शहरों एवं देशों का मै स्वामी हूँ। मेरा श्रेष्ठ अन्तःपुर भी है । इतनी विपुल सम्पत्ति होने पर भी मैं अनाथ कैसे हूँ ? अनाथ तो वही है जिसके पास कुछ न हो तथा जिसका कोई सहायक न हो और जिसका किसी पर भी शासन न हो । हे मुनीश्वर ! कहीं आपका कथन असत्य तो नहीं हैं ? कारण मुनि कभी असत्य नहीं बोलते ।” मुनि कहने लगे 'हे राजन ! वास्तव में तू अनाथ शब्द के अर्थ और परमार्थ को नहीं समझता । मैने जिस आशय को लेकर तुझको अनाथ कहा है वह तेरे ध्यान में नहीं आया है । इसीसे तुझे सन्देह हो रहा है । मुझे अनाथता का ज्ञान कहाँ और कैसे हुआ, - यह मै सुनाता हूँ | तू ध्यान पूर्वक सुन " कोशाम्बी नाम की प्राचीन नगरी में प्रभूतधनसंचय नाम के मेरे धनाढ्य पिता रहते थे । एक समय युवा अवस्था में मेरी आंखें दुखने आगई और उनमें असह्य पीड़ा होने लगी तथा आँखों को - वेदना के साथ साथ शरीर के प्रत्येक अवयव में असह्य दाह उत्पन्न हो
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
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