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________________ आगम के अनमोल रत्न "उस धनुष पर तप रूपी बाण चढ़ाकर कर्म रूपी कवच का -भेदन करता हूँ। इस प्रकार के संग्राम से निवृत्त होकर मुनि भवश्रमण से मुक्त हो जाते हैं।" "हे क्षत्रिय ! महल तथा अनेक प्रकार के घर तथा क्रीड़ास्थलों का निर्माण करवा कर फिर मुनि बनें ।" "हे विप्र ? जिसके हृदय में संशय हैं, वही मार्ग में घर बनाता है, किन्तु बुद्धिमान् तो वही है, जो इच्छित स्थान में पहुँच कर शाश्वत घर बनाता है।" "हे क्षत्रिय ! डाकुओं, प्राण हरनेवालों, गांठ कतरों और चोरों को वश में करके और नगर में शान्ति स्थापित करके फिर त्यागी बनें ।" "हे विप्र ! अज्ञान के कारण मनुष्यों को अनेक बार मिथ्यादण्ड दिया जाता है । जिससे निरापराधी दण्डित हो जाते हैं और अपराधी छूट आते हैं।" हे क्षत्रिय ! जो राजा लोग आप को प्रणाम नहीं करते उन्हें 'पहले वश में करें, फिर आप दीक्षा लें।" 'हे विप्र ! एक पुरुष, दुर्जय संग्राम में दस लाख सुभटों पर विजय पाता है और एक महात्मा अपनी आत्मा को ही जीतता है। इन दोनों में आत्मविजयी ही श्रेष्ठ है ।" "आत्मा के साथ ही युद्ध करना चाहिये । बाहर के युद्ध से क्या रान है ? आत्मा से ही मात्मा को जीतने में सच्चा सुख मिलता है।" "पांच इन्द्रियाँ, क्रोध, मान, माया, लोभ, ये सब एक दुर्जेय आत्मा के जीतने से स्वतः जीत लिये जाते हैं।". "हे राजन् ! बड़े बड़े महायज्ञ करके श्रमण ब्राह्मणों को भोजन कराकर तथा दान, भोग, और यज्ञ करके फिर प्रव्रज्या ग्रहण करें।"
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
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