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________________ आगम के अनमोल रत्न । उपनय-जो साधु चिरकाल पर्यन्त उग्र संयम का पालन करके अन्त में प्रतिपाती हो जाता है, संयम से भ्रष्ट हो जाता है, वह कण्डरीक की तरह दुःख पाता है । इसके विपरीत जो महानुभाव साधु गृहीत संयम का अन्तिम श्वान तक यथावत् पालन करते हैं, वे पुण्डरीक की भाँति अल्पकाल में ही सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। सुबुद्धि चम्पा नाम की नगरी में जितशत्रु नाम का राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम धारिणी था और पुत्र का नाम युवराज अदीनशत्रु । उसकी राज्य की धुरा श्रमणोपासक सुवुद्धि मंत्री के हाथ में थी। चम्पा नगरी के बाहर ईशान कोण में गन्दे पानी की एक बहुत बड़ी खाई थी। उसमें अनेक पशु पक्षियों के मृतक कलेवर सड़ रहे थे । कीड़े किलबिला रहे थे । सारे शहर की अशुचि एवं कूड़ा कर्कट उसी में आकर गिरता था । असह्य दुर्गन्ध के कारण उस खाई के पास से कोई निकलने की हिम्मत नहीं करता था । एक बार जितशत्रु राजा, भनेक राजाओं एवं धनाढ्यों के साथ भोजन करने के बाद सुखासन पर बैठा हुआ आज के भोजन की प्रशंसा करते हुए कहने लगा हे देवानुप्रियो ! भाज के भोजन का स्वाद, रूप, गन्ध और स्पर्श श्रेष्ठ था, अत्यन्त स्वादु था, पुष्टिकारक था, बलवर्धक था और समस्त इन्द्रियों के लिये बड़ा आहाददायक था । राजा के इस कथन का सवने अनुमोदन किया और राजा की हाँ में ही मिलाते हुए भोजन की खूब खूब प्रशंसा करने लगे किन्तु राजा के इस कथन पर मन्त्री सुवुद्धि भौन थे। उन्होंने दूसरे दरबारियों की तरह हाँ में ही नहीं मिलाई । सुवुद्धि को भौन देख राजा सुवुद्धि से बोला-सुबुद्धि । -क्या मेरा कथन तुझे रुचिकर नहीं लगा ? क्या भाज का भोजन प्रशंसा के योग्य नहीं था ?
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
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