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________________ ४१० आगम के अनमोल रत्न है । जब तुम भुक्तभोगी हो आवो तब संयम ग्रहण करना । साथ ही मेरी वृद्धावस्था का तू ही एकमात्र आधार है। इन बत्तीस वधुओं का सहारा है। अगर तू हमें छोड़कर संयम ग्रहण करेगा तो हम सब निस्सहाय हो जायेगें ।। माता के इस प्रकार के वचनों का थावच्चापुत्र पर कोई असर नहीं हुआ प्रत्युत वह और भी कठोर हो गया और दृढ़तापूर्वक आज्ञा मांगने लगा । पुत्र के उत्कट वैराग्य के सामने माता को नत मस्तक होना पड़ा और उसने दीक्षा की स्वीकृति दे दी। ___थावच्चा गाथापत्नी पुत्र के दीक्षा महोत्सव के लिए छत्र चँवर और मुकुट प्राप्त करने के लिए कृष्ण वासुदेव के पास पहुँची । उपहार भेंट कर उसने वासुदेव कृष्ण से कहा-मेरा पुत्र संसार के भय से उद्विग्न होकर अरिहन्त अरिष्टनेमि के समीप प्रवज्या ग्रहण करना चाहता है । मैं उसका निष्क्रमण सत्कार करना चाहती हूँ। अतः आप उसके लिए छत्र चँवर एवं मुकुट प्रदान करें ऐसौ मेरी इच्छा है। यह सुन कृष्ण वासुदेव बोले--देवी तुम निश्चिन्त रहो। मै स्वयं तेरे पुत्र का दीक्षा महोत्सव क्रूँगा । उसके बाद कृष्ण वासुदेव विजय हस्तीरत्न पर आरूढ़ हो थावच्चापुत्र के घर गये और थावच्चापुत्र से कहने लगे-वत्स ! मेरी भुजाओं की छाया के नीचे रहकर मनुष्य सम्बन्धी विपुल काम भोग का उपभोग करो । मेरी छत्रछाया में तुम्हें किसी प्रकार का कष्ट न होगा । तुम इस समय दीक्षा का विचार छोड़ दो। इस पर थावच्चापुत्र ने वासुदेव कृष्ण ने कहा--स्वामी ! अगर आप मुझे जन्म मरण के दुःख से मुक्त कर सकते हो तो मैं आपकी आज्ञा के अनुसार आपकी छत्रछाया में रहने के लिए तैयार हूँ। इस पर कृष्ण ने कहायह मेरी शक्ति के बाहर की वस्तु है । जव मै स्वयं ही जन्म मरण के दुःख से युक्त हूँ तो तुझे इससे मुक्त कैसे कर सकता हूँ ? जन्म मरण के दुःख से मुक्ति पाने का मार्ग तो संयम ही है । थावच्चापुत्र के तीन वैराग्यभाव से कृष्ण वासुदेव बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
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