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________________ १८६ - - आगम के अनमोल रत्न - धरणेन्द्र के मुख से यह बात सुनकर मेघगाली चौंका । वह घबराया हुआ नीचे उतरा और अपने अपराध की क्षमा मांगता हुआ प्रभु के चरणों में गिरा । भगवान तो समभावी थे। उन्हें न रोष ही था और न राग। वे तो अपने ध्यान में ही लीन थे । भगवान को उसने उपसर्ग रहित कर दिया । अत्यन्त नम्र भाव से भगवान की भक्तिकर वह अपने स्थान पर चला गया । धरणेन्द्र भी भगवान की भक्ति कर चला गया । दीक्षाग्रहण करने के चौरासी दिन के बाद भगवान विचरण करते हुए बनारस के आश्रमपद नामक उद्यान में पधारे। वहाँ धातकी वृक्ष के नीचे ध्यान करने लगे। चैत्रवदि चतुर्थी के दिन विशाखा नक्षत्र में ध्यान की परमोच्चस्थिति में भगवान को केवलज्ञान और केवल दर्शन उत्पन्न हुआ । इन्द्रादि देवों ने आकर भगवान का केवलज्ञान उत्सव मनाया । देवों ने समवशरण की रचना की । महाराज अश्वसेन के साथ उनके प्रजाजन भी भगवान की देशना सुनने के लिये आये । भगवान ने देशना दी। उनकी देशना सुनकर अपने छोटे पुत्र हस्तिसेन को राज्य देकर दीक्षा ले ली। माता वामादेवी ने एवं महारानी प्रभावती ने भी दीक्षा ग्रहण की। भगवान के शासन में पार्व नामक शासन देव और पद्मावती नाम की शासन देवी हुई। भगवान के परिवार में शुभदत्त, भार्यघोष, वशिष्ठ, ब्रह्म, सोम, श्रीधर, वारिषेण, भद्रयश, जय और दसवें गणधरं विजय थे। दसगण धर, १६००० साधु, ३८००० हजार साध्वियां, ३५० चौदह पूर्वधर, १ हजार चार सौ अवधिज्ञानी, ७५० मन.पर्यय ज्ञानी, १००० केवली, ११ सौ वैक्रियलब्धिधर, ६०० वादी, १ लाख ६४ हजार श्रावक एवं ३ लाख ७० हजार श्राविकाएँ हुई।
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
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