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________________ (३३) सतिसहस्रपमिता धवलनामाङ्कितां लिखाप्य विंशतिसहस्रकर्मपाभूतं विचार्य वीरसेनमुनिः स्वर्ग यास्यति । तस्य शिप्यो जिनसेनो भविष्यति सोऽपि चत्वारिंशत्सहस्रः कर्मणाभतं समाप्ति नेप्यति । अमुना प्रकारेण पष्टिसहस्रपमिता जयधवलनामाकिता टीका भविष्यति ।। - इसका अभिप्राय वही है, जो ऊपर इन्द्रनान्दिकृत श्रुतावतारके श्लोकोंमें दिया है । केवल इतना अन्तर है कि जयसेनके स्थानमें जिनसेनको वीरसेनका शिप्य बतलाया है। इसके शिवाय भगवद्गुणभद्रने उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें जिनसेनस्वामीको सिद्धान्तशास्त्रका टीकाकार कहा है । यथाः-- जिनसेनमगवतोक्तं मिथ्याकविदर्पदलनमतिललितम् । सिद्धान्तोपनिवन्धनको भत्रों चिराविनायासात् ॥ इस श्लोकका सम्बन्ध पहलेके कई श्लोकोंसे है, जिनमें महापुराणकी प्रशंसा की गई है। विस्तारके भयसे हमने उन्हें न लिखकर केवल इस एक ही श्लोकको लिखा है। इसका अभिप्राय यह है कि, झूठे कवियोंके गर्वको दलन करनेवाला यह बहुत ही सुन्दर महापुराण, विना ही परिश्रमके सिद्धान्तकी (कपायप्रामृतकी) शेष टीका वनानेवाले और चिरकाल तक संबका पालन करनेवाले भगवान् जिनसेनका कहा हुआ है । हम समझते हैं कि, जयधवला टीकाके शेप मागके कर्ता जिनसेन ही हैं, इस विषयमें अत्र और अधिक प्रमाण देनेकी अवश्यकता नहीं होगी।
SR No.010770
Book TitleVidwat Ratnamala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Mitra Karyalay
Publication Year1912
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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