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________________ (१२३) ग्रन्थकर्ताके विषयमें विशेष कुछ भी नहीं लिखा है। जो कुछ लिखा है, उससे केवल नामका पता लगता है' दृष्ट्वा सर्व गगननगरस्वममायोपमानम् निःसंङ्गात्मामितगतिरिदं प्राभृतं योगसारम् । ब्रह्मप्राप्त्या परममकृतं स्वेषु चात्मप्रतिष्ठम् नित्यानन्दं गलितकलिलं सूक्ष्ममत्यक्षलक्ष्यम् ॥१॥ योगसारामदेमकमानसः माभूतं पठति योऽभिमानतः । स्वस्वरूपमुपलक्ष्य सोवितः सम्पयाति भवदोषवञ्चितम् ॥२॥ .. "इति श्रीअमितगतिवीतरागविरचितायामध्यात्मतरंगिण्यां । " नवमोऽधिकारः। - इसका सारांश यह है कि सम्पूर्ण संसारको आकाश नगरके समान स्वप्नकी माया समझकर श्रीअमितगति नामक निर्ग्रन्थ मुनिने ब्रह्मकी प्राप्तिके लिये यह नित्यानन्दस्वरूप, पापरहित, सूक्ष्म, अतीन्द्रियगोचर, योगसार नामका ग्रन्थ बनाया। जो लोग इसे एकचित्त होकर सन्मानपूर्वक पढ़ेंगे, वे अपने स्वरूपको पाकर संसारके पापोंसे मुक्त हो जायेंगे। "' यह ग्रन्थ हमको केवल एक घंटे तक देखनेका अवसर मिला, इसलिये हम इसे अच्छी तरहसे नहीं देख. सके तो भी जितने श्लोक पढ़े वे बहुत ही. उत्तम और हृदयग्राही मालूम हुए। अमितगतिके ग्रन्थों में यह बड़ी खूबी है कि वे कठिन नहीं हैं। सरल भाषामें ही उन्होंने अच्छे २ गंभीर विषय कहे हैं। . . . ... ... ...
SR No.010770
Book TitleVidwat Ratnamala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Mitra Karyalay
Publication Year1912
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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