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________________ (१०५) उत्तम काव्य अपने कल्याणके लिये बनाया, जिसके प्रत्येक सर्गके अंतमें 'सिद्ध ' शब्द रक्खा गया है, जो तीनों विद्याओंके जाननेचाले कवीन्द्रोंको आनन्दका देनेवाला है और स्वोपज़टीकासे प्रकाशित है। धर्मामृतशाख जो कि जिनेन्द्र भगवानकी वाणीरूपीरससे युक्त है और टीकासे सुन्दर है, वनाकर मोक्षकी इच्छा करनेवाले विद्वानोंके हृदयमें अतिशय आनन्द उत्पन्न किया। आयुर्वेदके विद्वानोंकी प्यारी वाग्भट्टसंहिताकी अष्टांगहृदयोद्योतिनी नामकी टीका वनाई, मूल आराधना और मूल इंटोपदेश (पूज्यपादकृत ) आदिको टीकाएँ वनाई और अमरकोषपर क्रियाकलाप नामकी टीका बनाई। इसमें जो आदि शब्द दिया है, उससे आराधनासार, भूपालचतुर्विंशतिका आदिकी टीकाएँ समझनी चाहिये । अर्थात् इन -ग्रन्थोंकी टीकाएँ भी पंडितवर्यने वनाई। . ये सब ग्रन्थ विक्रमसंवत् १२८५ के पहलेके बने हुए हैं। जिनयज्ञकल्पकी प्रशस्तिमें इतने ही ग्रन्थोंका उल्लेख है । इनके पश्चात् सं० १२९६ तक अर्थात् सागारधर्मामृतको टीका बनानेके समय तक निम्नलिखित ग्रन्थोंकी रचना और भी हुई: रौद्रटस्य व्यधात् काव्यालङ्कारस्य निवन्धनम् सहस्रनामस्तवनं सनिवन्धं च योऽर्हताम् ॥१४॥ सनिवन्धं यश्च जिनयज्ञकल्पमरीरचत् । त्रिषष्टिस्मृतिशाखं यो निवन्धालङ्कृतं व्यधात् ॥ १५॥ . १. इससे जान पड़ता है कि आशाधर वैद्यविद्याके भी बड़े भारी पंडित थे । २. पूज्यपादका मूल इष्टोपदेश. वम्बईके मन्दिरमें है। इसकी भाषाटीका भी किसी जयपुरी पंडितकी वनाई हुई है। -
SR No.010770
Book TitleVidwat Ratnamala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Mitra Karyalay
Publication Year1912
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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