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________________ प्रवचनसार [ ७३ * तो वह शुद्ध चिदानंद संपति,-को तिरकाल विौं न लहन्ता । । याही से मोह महारिपुकी, रमनी दुरखुद्धिको त्यागहिं संता ॥ २० ॥ दोहा । तात साध्यसरूप है, शुद्धरूप उपयोग ताके बाधक मोहको, दिढ़तर तजिवो जोग ॥२१॥ जो शुभ ही चारित्रको, जाने शिवपद हेत । तो वह कबहुं न पाय है, अमल निजातम चेत ॥ २२ ॥ (१२) गाथा-८० उसे जीतनेका उपाय हरिगीतिका । दरव-गुन-परजायकरि, अरहंतको जो जानई । घातिदल दलमल सकल, तसु अमलपद पहिचानई ।। सो पुरुष निज नित आत-भीक स्वरूपको जान सही । तासके निहचैपनैसों, मोह नाश लहै यही ॥२३॥ मनहरण । जैसे चारै बानीको पकायो भयौ चामीकर, ___ सर्वथा प्रकार होत शुद्ध निकलंक है । तैसे शुद्ध ध्यानानल जोगते करममल, ___ नासिके अमल अरहंत जू अटंक है ॥ तिनके दरवमें जु ज्ञानादि विशेषन हैं, तिनहीको गुन नाम भाषत निशंक है। एक समै मात्र कालके प्रमान चेतनके, . __ पर्नतिको भेद परजाय सो अवंक है ॥ २४ ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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