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________________ प्रवचनसार मनहरण । घातिया करम यही ज्ञानमाहिं खेद करै ___ जात मोहउदै मतवालो होत आतमा । झूठी वस्तुमाहि बुद्धि सांची करि धावतु है, खेदजुत इन्द्री विषै जानै बहु भातमा ॥ जाके घाति कर्मको सरवथा विनाश भयो, ___ नग्यो ज्ञान केवल अनाकुल विख्यातमा । त्रिकालके ज्ञेय एक बार चित्रभीतवत, ___ जानै जोई ज्ञान सोई सुख है अध्यातमा ॥ २५॥ (९) गाथा-६१ केवलज्ञान सुख स्वरूप है। मत्तगयन्द । केवलज्ञान अनन्तप्रभात, पदारथके सब पार गया है । लोक अलोकविष जसु दिष्टि, विशिष्टपनें विसतार लया है ॥ सर्व अनिष्ट विनष्ट भये, औ जु इष्ट सुभाव सो लाभ लया है । यात अभेद दशा करिकै यह, ज्ञानहिको सुख सिद्ध ठया है ॥२६॥ दोहा । जब ही घाति विघातिके, शुद्ध होय सरवंग । ज्ञानादिक गुन जीवके, सोई सौख्य अभंग ॥२७॥ निजाधीन जानै लखै, सकल पदारथ वृन्द । खेद न तामैं होत कछु, केवलजोति सुछन्द ॥२८॥ तात याही ज्ञानको, सुखकरि बरनन कीन । भेदविविच्छा छांडिके, कुन्दकुन्द परवीन ॥ २९ ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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