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________________ [६] नहीं होगा, ऐसा सोचकर इसमें केवल मूल गाथाओंका नंवर दे दिया है। इससे जो लोग मूल ग्रन्थ तथा संस्कृत टीकासे अर्थ समझना चाहेंगे उन्हें लाभ होगा। ____ इस ग्रन्थकी टीकाओं में प्रत्येक गाथाके प्रारम्भमें शीर्पकके रूपमें छोटी छोटीसी उत्थानिकायें हैं। यदि वे इसके साथ लगा दी जाती, तो बहुत लाभ होता। परन्तु ग्रन्थके कई फार्म छप चुकने पर यह वात हमारे ध्यानमें आई, इसलिये फिर कुछ न कर सके । पाठकगण इसके लिये हमें क्षमा करेंगे। यदि कभी इसकी दूसरी आवृत्ति प्रकाशित करनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ, तो यह त्रुटि पूर्ण कर दी जायेगी , परन्तु जैनसमाजमें ग्रन्थोंका इतना आदर ही कहाँ है, जो ऐसे ग्रन्थोंकी दूसरी आवृत्तिकी आशा की जावे। हम ऊपर कह चुके हैं कि यह ग्रन्थ मूल ग्रन्थका अनुवाद नहीं, किन्तु टीकाका पद्यानुवाद अथवा पद्यमयी टीका है। इसमें पंडित हेमराजजीकी वचनिकाका प्रायः अनुवाद किया गया है। कहीं कहीं तो वचनिकाका एक शब्द भी नहीं छोड़ा है। हमारी इस बात पर विश्वास करनेके लिये पाठकोंको तीसरे अधिकारकी २३ वीं गाथाकी कविता पंडित हेमराजजीकी वचनिकासे देखना चाहिये । वचनिकाके साथ इस अनुवादके दो-चार स्थान मिलाकर दिखाने और उनकी आलोचना करनेका हमारा विचार था, जिससे यह ज्ञात हो जाता कि कविवर वृन्दावनजीने मूल ग्रन्थके तथा टीकाओंके अभिप्रायोंको कहांतक समझकर यह अनुवाद किया है। परन्तु खेद है कि अवकाश न मिलनेसे यह विचार मनका मनमें ही रह गया। इस ग्रन्थमें शुद्ध निश्चयनयका कथन है। इसलिये इस ग्रन्थके स्वाध्याय करनेके अधिकारी वे ही लोग हैं, जो जैनधर्मके निश्चय
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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