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________________ प्रवचनसार [ ४७ सो जन वस्तु परोच्छ तथा, सूच्छिम नहिं जाने । मतिज्ञानीकी यही शकति, जिनदेव बखाने ॥ १८३ ॥ मनहरण । इन्द्रिनके विषय जे विराजत हैं थूलरूप, तिनसों मिलाप जब होय तब जाने हैं। अवग्रह ईहा औ अवाय धारणादि लिये, क्रमसों विकल्पकरि ठीकता सो माने हैं ॥ . भूतभावी परजै प्रमान औ अरूपी वस्तु, इन्द्रिनतें सर्व ये अगोचर प्रमाने हैं। जातें इन गच्छिनिको अच्छतें न ज्ञान होत, ताहीसेती अच्छज्ञान तुच्छ ठहराने है ॥ १८४ ।। (४१) अतीन्द्रिय ज्ञानकी महानता । अप्रदेशी कालानु प्रदेशी पंच अस्तिकाय, मूरतीक पुग्गल अमूरतीक पांच है । तिनके अनागत अतीत परजाय भेद, नाना भेद लिये निज निज थल माच है ।। सर्वको प्रतच्छ एक समैहीमें जाने स्वच्छ, अतीन्द्रियज्ञान सोई महिमा अवाच है । वारबार बंदत पदारविंदताको वृन्द, जाको पद, जानेंतें न नाचै कर्मनाच है ॥ १८५॥ सर्वया छन्द । इन्द्रियजनित ज्ञानहीने जे, मतवाले माने सरवज्ञ । सो तौ प्रगट विरोध बात है, पच्छ छांडि परखौ किन तज्ञ ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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