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________________ प्रवचनसार [ ४३ __ आप चिन्मूरत अखंड द्रव्यदृष्टि ताके, । सत्ता गुन भेदतें अनंत धारा धेरै है ॥ १५३ ।। दोहा । निरविकल्प आतम दरब, द्रव्यदृष्टिके द्वार । जब गुन परज विचारिये, तब बहु भेद पसार ॥ १५४ ॥ जेते वचनविकल्प हैं, ते ते नयके भेद । सहित अपेच्छा सिद्ध सब, रहित अपेच्छ निषेद ॥ १५५ ।। जहां सरवथा पच्छकरि, गहत वचनकी टेक । तहाँ होत मिथ्यात मत, सधत न वस्तु विवेक || १५६ ॥. तातें दोनों नयनिको, दोनों नयनसमान । जथाथान सरधानकरि, वृन्दावन सुख मान. ॥ १५७ ॥ जहां अपेच्छा जासुकी, तहां ताहि करि मुख्य । करो सत्य सरधान दिढ़, स्यादवाद रस चुख्य ॥ १५८॥ . है सामान्य विशेषमय, वस्तु सकल तिहि काल । सो इकंतसों सधत नहिं, दूषन लगत विशाल ॥ १५९ ॥ . तातें यह चिद्रूपको, प्रनवन है गुन ज्ञान । ज्ञानरूप वह आप है, चिदानंद भगवान ॥ १६० ।। (३६ ) ज्ञान-ज्ञेयका वर्णन । षट्पद । - पूरवकथित प्रमान, जीव ही ज्ञान सिद्ध हुव । . ज्ञेय द्रव्य कहि त्रिविधि, विविध विधि भेद तासु ध्रुव ॥ चिदानंदमें द्रव्य, ज्ञेय दोनों पद सोहै ।। अन्य पंच जड़वर्ग, ज्ञेय पदवी तिनको है ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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