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________________ २३२ ] कविवर वृन्दावन विरचित RIZETTERTAITENERALREZAVALERTREAzaz.saxzort तजि कुसंग सरवथा, सुपथमें चलो बुधातम । वसो सदा सतसंगमाहिं, साधो शुद्धातम ॥६७ ॥ मनहरण ।। प्रथम दशामें शुभ उपयोगसेती, उतपन्न जो प्रवृत्ति वृन्द ताको अंगीकार है । पीछेसों सु संजमकी उतकिष्टताई करि. परम दशाको अवधारो बुद्धिधार है ॥ पाछे सर्व वस्तुकी प्रकाशिनी केवलज्ञाना, -नन्दमई शास्वती अवस्था जो अपार है । ताको सरवथा पाय अपने अतिन्द्री सुख, तामें लीन होहु यह पूरो अधिकार है । ६८ । माधवी । तिस कारनतै समुझाय कहों, मुनि वृन्दनिको सतसंगति कीने । 1. अपने गुनके जे समान तथा, परधान मुनीनिकी संग गहीजे ॥ जदि चाहत हौ सब दुःखनिको खय, तो यह सीख सु सीस धरीजे । नित वास करो सतसंगतिमाहिं, कुसंगतिको सु जलंजलि दीजे ॥६९।। दोहा । ज्यों जुग मुकता सम मिलत, कीमत होत महान । त्यों सम सतसंगत मिलत, बढ़त सुगुन अमलान १७०॥ ज्यों पारस संजोगते, लोह कनक है जाय । गरल अमिय सम गुनधरत, उत्तम संगति पाय ।।७१।। १. विष । २. अमृत ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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