SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचनसार [१५ निज चैतन्य सुभावकरि, तिनसों है लवलीन । सो अद्वैत सुवन्दना, भेदरहित परवीन ॥ १४ ॥ (४) माधवी। करि वंदन देव जिनिंदनकी, ध्रुव सिद्ध विशुद्धनको उर ध्यावों । तिमि सर्व गनिंद गुनिंद नमों, उदघाट कपाटक ठाट मनावों ।। मुनि वृन्द जिते नरलोकवि, अमिनंदित है तिनके गुन गावों । यह पंच पदस्त प्रशस्त समस्त, तिन्हें निज मस्तक हस्त लगावों ॥ १५॥ । इनके विसरामको धाम लसै, अति उज्ज्वल दर्शनज्ञानप्रधाना । जहं शुद्धपयोग सुधारस वृन्द, समाधि समृद्धिकी वृद्धि वखाना ॥ तिहिको अवलंबि गहों समता, भवताप मिटावन मेघ महाना, लिहितें निरवान सुथान मिले, अमलान अनूपम चेतन वाना ॥१६ (६) दो प्रकार-चारित्र और फल । चौवोला ।' जो जन श्री जिनराजकथित नित, चित्तवि, चारित्त धरै । सम्यकदर्शनज्ञान जहां, अमलान विराजित जोति भएँ । सो सुर इन्द वृन्द सुख भोगे, असुर इन्दको विभव रै । होय नरिंद सिद्धपद पावै, फेरि न जगमें जन्म धरै ॥१७
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy