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________________ २२० ] फविवर वृन्दावन विरचित (३) गाथा-२४७ उनकी प्रवृत्ति । मनहरण । महामुनिराजनिकी वानीसेती थुति करे, ___कायासेती नुति करै महामोद भरी है । आवत विलोकि उठि खड़े होहि विन धारि, चाले तब पीछे चले शिण्यभाव धरी है ॥ तिनके शरीरमाहिं खेद काह भाँति देखें, ___ताको दूर करै जथाजोग विसतरी है । सराग चरित्रकी अवस्थामाहिं मुनिनिको, येती क्रिया करिवो निषेध नाहिं करी है ॥ १८ ॥ दोहा । शुभ उपयोगी साधुको, ऐसो वरतन जोग । शुद्धपयोगी सुमुनि प्रति, जहँ आतमनिधि भोग ॥ १९॥ जो श्रीमहामुनीशके, कहुँ उपसर्गवशाय । खेद होय तो सुथिर हित, वैयावृत्ति कराय ॥ २० ॥ जाते खेद मिटै बहुरि, सुथिर होय परिनाम । . तब शुद्धातम तत्त्वको, ध्यानै मुनि अभिराम ॥२१॥ शुद्धातमके लाभते, रहित जु मिथ्यातीय । ताकी सेवादिक सकल, यहां निषेध करीय ॥ २२ ॥ (४) गाथा-२४८ छठवें गुणस्थानमें यह प्रवृत्तियाँ हैं। सम्यकदर्शन ज्ञान दशा, उपदेश करें भविको भवतारी । शिष्य गहैं पुनि पोषहिं ताहि, भली विधिसों धरमामृतधारी ॥ है श्री जिनदेवके पूजनको, उपदेश करें महिमा विसतारी । है है यह रीति सरागदशामहँ, वृन्द मुनिंदनिको हितकारी ॥२३॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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