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________________ प्रवचनसार [ २०७ Sooraaaaaaaaaaaaaaaaaaaaara ताते यह उर आनि, अनेकान्त जाकी धुजा । सो आगम पहिचानि, पढ़ो सुनो भवि वृन्द नित ॥२०॥ मागम ही हैं नैन, शिवमुखइच्छुक मुनिनिके । यों भाषी - जिनवैन, स्वपरमेदविज्ञानप्रद ॥२१॥ (४) गाथा-२३५ आगमचक्षुसे सब कुछ दिखाई देता है। माधवी। जिनआगममें सव दर्वनिको, गुन पर्ज विभेद भली विधि साधा । तिस आगमहीत महामुनि देखक, जानै जथारथ अर्थ अगाधा.।। तव भेदविज्ञान सुनैन प्रमान, निजातम वृन्द लहै निरबाधा । अपने पदमें थिर होकरिके, अरिको हरिके सु वर शिवराधा ॥२२॥ जिनवाणी महिमा-मनहरण । एक एक दर्वमें अनंतनंत गुन पर्ज, नित्यानित्य लच्छनसों जुदे जुदे धर्म है । ताको जिनवानी ही अबाधरूप सिद्ध कर, हर महा मोहतम अंतरको भर्म है ॥ताहीकी सहायतै सु भेदज्ञाननैन खोलि, जा. महामुनि शुद्ध आतमको मर्म है । सोई जगदंवको अलम्ब करै वृन्दावन, त्यागिके विलम्ब सदा देत पर्म शर्म है ॥२३॥ (५) गाथा-२३६ बागमज्ञान-तत्वार्थश्रद्धान-संयमभावकी युगपतता होना ही मोक्षमार्ग है। प्रथम जिनागम अभ्यासकरि यहां जाके, . सम्यकदरश सरधान. नाहिं भयौ है ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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