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________________ प्रवचनसार [२०१ येई भेद भली भांति जानकरि अहो मुनि, आहारविहार करो संजम सु रखिकै । जामें कर्मवन्ध अल्प बँधै ताही विघिसेती, आचरन करो अनेकांत रस चखिकै ॥१५३॥ . चौपाई। जे उतसर्गमार्गके धारी । ते देशरु कालादि निहारी ॥ बाल वृद्ध खेदित रुजमाहीं। मुनि कोमल आचरनकराहीं ॥१५४॥ ( नामें संजम भंग न होई । करमप्रबन्ध बन्धै लघु सोई ॥ शकति लिये न मूलगुन घातै । यहु मग तिनको उचित सदातै ॥१५५॥ अरु जे अपवादिकमग ध्याता । सब विधि देशकालके ज्ञाता ॥ ते मुने चारिहु दशामँझारी । होउ सुजोग अहारविहारी ॥१५६॥ संजमरंग भंग जहँ नाहीं । ताही विधि आचरहु तहाँ ही ॥ शकति न लोपि न मूलहु घातो। अलपबंधकी क्रिया करातो ॥१५॥ दोहा। कोमल ही मगके विषै, जो इकंत बुधि धार । अनुदिन अनुरागी रहै, अरु यह करै विचार ॥१५८॥ कोमलहू मग तो कही, जिन सिद्धांत मँझार । हम याही मग चलहिंगे, यामें कहा विगार ॥१५९॥ तो वह हठयाही पुरुष, संजमविमुख सदीव । शकति लोपि करनी करत, शिथिलाचारी जीव ॥१६॥ ताको मुनिपद भंग है, अनेकांतच्युत सोय । . चाँधै करम विशेष सो, शुद्ध सिद्ध किमि होय ॥१६॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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