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________________ 222225EOSCHECESUSNERZARSEENERADESSERASHIENNIZAS EMES प्रवचनसार [ १३ रचौं आप परको हितकारी । भव्य जीव आनन्दविथारी । प्रवचन जलघि अर्थ जल लैहै । मति-भासन-समान जल पेहै ॥५॥ दोहा। अमृतचंद्रकृत संसकृत, टीका अगम अपार । तिन अनुसार कहौं कडू, सुगम अल्प विसतार ॥ ६ ॥ (१) गाथा १ से ५ तक मंगलाचरण सहित नमस्कार तथा चारित्रका फल (१) मतगयन्द । श्रीमत वीर जिनेश यही, तिनके पद वंदत हौं लवलाई । वन्दत वृन्द सुरिन्द जिन्हें, असुरिन्द नरिन्द सदा हरषाई ॥ जो चउ घातिय कर्म महामल, धोइ अनन्त चतुष्टय पाई । धर्म दुधातमके करता प्रभु, तीरथरूप त्रिलोकके राई ॥ ७ ॥ चौपाई। वरतत है शासन अब जिनको । उचित प्रनाम प्रथम लिख तिनको । कुंदकुंद गुरु वन्दन कीना । स्यादवादविद्या परवीना ॥ ८॥ (२) मनहरण । शेष तीरथेश वृषभादि आदि तेईस औ, सिद्ध सर्व शुद्ध बुद्धिके करंडवत हैं । जिनको सदैव सदभाव शुद्धसत्ताहीमें, तारनतरनको तेई तरंडवत हैं ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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