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________________ प्रवचनसार मिच्छाकरि जो असन वखानै। तहां अरंभ दोष नहिं जानै ॥ ताहूमें अनुराग न धरई । सोई जोग अहार उचरई ॥१३८॥ । दिनमें भलीभांति सब दरसत । दया पले हिंसा नहिं परसत ॥ रैन अप्सन सरवथा निषेधी । दिनमें जोग अहार अवेधी ॥१३९॥ जो रस आस धेरै मनमाहीं। तो अशुद्ध उर होय सदाही ॥ । अंतरसंजमभाव सु पाते । तातै रस इच्छा तजि खाते ॥१४०॥ । मद्य मांस अरु शहद अपावन । इत्यादिक जे वस्तु घिनावन ॥ । तिनको त्याग सरवथा होई । सोई परम पुनीत रसोई ॥१४॥ सकलदोष तजि जो उपजे है। सोई जोग अहार कहै है ॥ नीतरागता तन सो धारी । गहै ताहि मुनिवृन्द विचारी ॥१४२॥ (३०) गाथा-२३० उत्सर्ग और अपवादकी मैत्री द्वारा ___ . आचरणकी सुस्थितताका उपदेश । द्रुमिला। जिन वालपने मुनि भार धरे, अथवा जिनको तन वृद्ध अती । अथवा तप उग्रतें खेद जिन्हें, पुनि जो मुनिकों कोउ रोग हती ॥ तब सो मुनि आतमशक्ति प्रमान, चरो चरिया निजजोग गती ।। गुनमूल नहीं जिमि घात लहै, सो यही जतिमारग जानु जती. ॥ दोहा । अति कठोर आचरन जहँ, संजमरंग अभंग । सोई मग उततर्गजुन, शुद्धसुभाव-तरंग ॥१४४ । ऐसी चरिया आचरें, तेई मुनि पुनि मीत । कोमलमगमें पग धेरै, देखि देहकी रीत ॥१४५।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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