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________________ प्रवचनसार [ १८७ तामें फिर जो थिर करहि, जतिपथरीतिप्रमान । ते निर्यापक , नाम गुरु, जानो श्रमन सयान ॥ ८१ ॥ (११-१२) गाथा-२११.२१२ चिन्न संयमके प्रविसंधान की विधि। छप्पय । नो मुनि जतनसमेत, कायकी क्रिया अरंभत । शयनासन उठि चलन, तथा जोगासन थंभत ॥ तहँ जो संजम घात होय, तव सो मुनिराई । मापु अलोचनसहित, क्रियाकरि शुद्धि लहाई ॥ यह वाहिज संजम भंगको, आपुहि आप सुदण्डविधि । करि शुद्ध होहिं आचारमें, जे मुनिवृन्द विशुद्धनिधि ॥ ८२ । जिस मुनिका उपयोग, सुघटमें भंग भया है। रागादिक मल भाव, रतनमें लागि गया है । तिनके हेत उपाय, जो जिनमारगकेमाहीं । जती क्रियामें अतिप्रवीन, मुनिराज कहाहीं ॥ तिनके ढिग जाय सो आपनो, दोष प्रकाशै विनय कर । जो कहैं दंड सो करै तिमि, तब है शुद्धाचारथर ॥ ८३ ।। (१३) गाथा-२१३ परद्रव्य-प्रतिबंधका परिहार और श्रामण्यमें वर्तन । मनहरण । जाके उर आतमीक ज्ञानजोति जगी वृन्द, ___ आपहीमें आपको निहारै तिहूँपनमें ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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