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________________ प्रवचनसार [ १७५ , ओं नमः सिद्धेभ्यः अथ सप्तमश्चारित्राधिकारः । मंगलाचरण-दोहा । श्री अरहंत प्रनाम करि, सारद सुगुरु मनाय ।। विधनकोट जातें करें, नित नव मंगलदाय ।। १ ।। चारितको अधिकार अब, शिवसुखसाधनहेत । लिखों ग्रंथ-पथ पेखकै, जो अबाध सुख देत ।। २ । अथ मोक्षाभिलाषीका लक्षण-मनहरण । मोच्छअमिलाषी भव्य जीवको प्रथम- सर्व, दर्वनिको जथारथ ज्ञान भयो चहिये । . तैसेंही चारित्रको स्वरूप भले जान करि, ज्ञानके सुफलहेत ताकों तब गहिये । आतमीक ज्ञानसेती जेती अविरोध क्रिया, इच्छा अहंकार तजि ताहीको निबहिये । ऐसे ज्ञान आचरन दोनोंमाहिं वृन्दावन, एकताई भयेहीसों अखै सुख लहिये । ३ ।। (१) गाथा-२०१ अब इस अधिकारकी गाथाओंका प्रारंभ । . चरणानुयोग सूचक चूलिका । दोहा । ग्रंथारभ विर्षे सुगुरु, जिहिकारि बंदे इष्ट । तिनही गाथनिसों यहां, नमें पंचपरमिष्ट ॥ ४॥ फिर गुरु कहत दयाल वर, जिमि हम इष्ट मनाय । अमलज्ञान दरसनमई, पायौ साम्य सुभाय । ५ ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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