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________________ १७२ ] कविवर वृन्दावन विरचित ऐसे सिद्धनिकों तथा, आतम अनुभवरूप । शुद्ध मोख-मगको नमों, दरवितभाव सरूप ॥१३३॥ (५५) गाथा-२०० स्वयं हो मोक्षमार्गरूप शुद्धात्म प्रवृत्ति करते हैं। __ मनहरण । तातें जैसे तीरथेश आदि निजरूप जानि, शुद्ध सरधान ज्ञान आचरन कीना है । कुन्दकुन्द स्वामी कहैं ताही परकार हम, ज्ञायक सुभावकरि आप आप चीना है । सर्व परवस्तुसों ममत्वबुद्धि त्यागकरि, निर्ममत्व भावमें सु विसराम लीना है । सोई समरसी वीतराग साम्यभाव वृन्द, मुकतको मारग प्रमानत प्रवीना है ॥१३४॥ मेरो यह ज्ञायक सुभाव जो विराजत है, तासों और ज्ञेयनिसों ऐसो हेत झलकै । कैधों वे पदारथ उकीरे ज्ञान थंभमाहिं, कैंधों ज्ञान पटवि. लिखे हैं अचलकै । कैधों ज्ञान कूपमें समानै हैं सकल ज्ञेय, कैधों काहू कीलि राखे त्याग तन पलकै । कैधों ज्ञानसिंधुमाहिं डूवे धो लपटि रहे, कंधों प्रतिबिंबत हैं सीसेके महलके ॥१३५॥ १. कांचके।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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