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________________ प्रवचनसार [ १५: 04. Comme (३४) गाथा-१७९ गग परिणाम मात्र जो भाव बन्ध है सो द्रव्य बन्धका हेतु होनेसे वहीं निश्चय बंध है। द्रुमिला। परदविर्षे अनुराग धेरै, वसु कर्मनिको सोइ बंध करै । अरु जो जिय रागविकार तजै, वह मुक्तवधूकहं वेगि वरै ।। यह बंध रु मोच्छमरूप जथारथ, थोरहिमें निरधार धेरै । निहचै करिके जगजीवनिके, तुम जानहु वृन्द प्रतीन भरै ॥८४॥ . चौपाई। रागभाव प्रनवे जे आंधे । नूतन दरव करम ते बांधे ॥ वीतरागपद जो भवि परसै । ताको मुक्त अवस्था सरसै ॥८५॥ दोहा। रागादिकको त्यागि जे, वीतराग हो जाहँ । चले जाहिं वैकुंठमें, कोइ न पकर बाहँ ॥ ८६ ॥ (३५) गाथा-१८० राग द्वेष-मोह युक्त परिणामसे बन्ध है। राग शुभ या अशुभ होता है । मनहरण । परिनाम अशुद्ध” पुग्गलकरम बंधे, सोई परिनाम रागदोषमोहमई है। तामें मोह दोप तो अशुभ ही है सदा कालं, रागमें दुभेद वृन्द वेद वरनई है ॥ पंच' परमेश्वरकी भक्ति' घरमानुराग, ___ यह शुभराग भाव कथंचित लई है ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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