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________________ प्रवचनसार [ १५७ तैसें पुदगल कर्म वाहिज निमित्त जानो, ___ बंध्यौ जीव निडचे अशुद्धता-मरोरसों ॥७६ । (३०) गाथा-१७५ भाववन्धका स्वरूप । माधवी। उपयोगसरूप चिदातम सो, इन इन्द्रिनिकी सतसंगति पाई । । बहु भांतिके इष्ट अनिष्ट विपैं, तिनको तित जोग मिले जब आई ॥ हूँ तब राग रु दोष विमोह विभावनि, -सों तिनमें प्रनवै लपटाई । है तिनही करि फेरि वधै तहँ आपु, यों भाविकबंधकी रीति बताई ||७७|| (३१) गाथा-१७६ भाववन्धकी युक्ति और द्रव्यवन्ध । मनहरण । रागादि विभावनिमें जौन भावकरि जीव, देखे जाने इन्द्रिनिके विषय जे आये हैं । ताही भावनिसों तामें तदाकार होय रमै, तासों फेरी बँधै यही भावबंध भाये हैं । सोई भावबंध मानों चीकन रुखाई भयो, ताहीके निमित्त सेती दर्वबंध गाये हैं । जामें भाठ कर्मरूप कारमानवर्गना है, ऐसे सर्वज्ञ भनि बुन्दको बताये हैं ||७८॥ (३२) गाथा-१७७ बन्धके तीन प्रकार । पुवबंध पुग्गलसों फरस विभेद करि, नयो कर्मवर्गनाके पिंडको गथन है ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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