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________________ प्रवचनसार प्रवचनसार [१५५ (२८) गाथा-१७३ आत्माके अमूर्त-मूर्तका अभाव है तो बंध कैसे? मनहरण । मूरतीक रूप आदि गुनको धरैया यह, पुग्गल दरवसों फरस आदिवानसों । आपुसमें वं नाना भांति परमानू खंध, सो तो हम जानी सरधानी परमानसों ॥ तासों विपरीत जो अमूरत चिदातमा सो, कैसे बधै पुग्गल दग्व मूर्तिनानसों । यह तो अचंभौ मोहि ऐसो प्रतिभा वृन्द, अमल मिलाप ज्यों "नितंब जु कानमों" ||६८॥ (२९) गाथा-१७४ आत्माके अमूतत्व होने पर भी इस प्रकार बंध होता है। रूपादिक जे हैं मूरतीक गुन पुग्गलके, तिनसों रहित जीव सर्वथा प्रमानसों । ऐसो है तथापि वह अन्यरूर होत नाहि, आपनी सुसत्तामें विराजे परधानसों ॥ सर्व दर्व सदा निज दर्वित आकार धरे, काहूको आकार कभी मिलै नाहिं आनसों । तैसे ही अरूपी चिदाकार वन्द आतमा है, ताके अब सुनो जैसे वैधत विधानसौ ॥६९ ॥ रूपी दर्व घटपट आदिक अनेक तथा, ताके गुनपरजाय विविध वितानसों । नार
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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