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________________ प्रवचनसार [ १५३ तथा वैयक्रीयक शरीर देवनारकीके, जथाजोग ताहूके अकारकी है रचना ॥ तैजस शरीर जो शुभाशुभ विभेद औ, अहारक तथैव कारमानकी विरचना । ये तो सर्व पुग्गल दरवके बने हैं पिंड, __ यातै चिदानंद मिन्न ताहीसों परचना ॥ ५५ ॥ (२७) गाथा-१७२ जीवका असाधारण स्वलक्षण जो परद्रव्योंसे विभागका साधन है वह क्या है ? चेतनालक्षणवाली अलिंग-ग्रहणकी गाथा । अहो भव्यजीव तुम आतमाको एसो जानो, जाके रस रूप गंध फास नाहिं पाइये । शब्द परजायसों रहित नित राजत है, अलिंगग्रहन निराकार दरसाइये ॥ चेतना सुभावहीमें राजे तिहूँकाल सदा, आनंदको कंद जगवंद वृन्द ध्याइये । भेदज्ञान नैनते निहारिये जतनहीसों, ताके अनुभव रसहीमें झर लाइये ॥ ५६ ॥ दोहा। शब्द अलिंगग्गहन गुरु, लिख्यौ जु गाथामाहिं । कछुक अस्थ तसु लिखत हों, जुगतागमकी छांहिं ॥ ५७ ॥ १. वैक्रियक ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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