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________________ १४४ ] कविवर वृन्दावन विरचित मनहरण । जाने काललब्ध पाय दर्श मोहको खिगाय, उपशमवाय वा सुश्रद्धा यों लहाही है । मेरो चिदानंदको दरव गुन परजाय, उतपाद वय धुव सदा मेरे पाहीं है ॥ और परदर्व सर्व निज निज सत्ताहीमें, कोऊ दर्व काहूको सुभाव न गहाही है । तातें जो प्रगट यह देह खेह-खान दीसे, ___ सो तो मेरो रूप कहूं नाहीं नाहीं नाहीं है । २०॥ म (१०) गाथा-१५४ अब आत्माकी अन्य द्रव्य के साथ संयुक्तता होनेपर भी अर्थ निश्चायक अस्तित्व के स्व-पर विभागके हेतु रूपमें समझाते हैं। मिला। उपयोगसरूप चिदातम सो, उपयोग 'दुधा छवि छाजत है। नित जानन देखन भेद लिये, सो शुभाशुभ होय विराजत है ॥ तिनही करि कर्मप्रबंध बँधै , इमि श्रीजिनकी धुनि गाजत है। जब आपमें आपुहि बाजत है, तब श्योपुर नौबत वाजत है ॥२१॥ (११) गाथा-१५५-१५६ आत्माको अत्यन्त विभक्त करनेके लिये परद्रव्यके संयोगके कारणका स्वरूप कहते हैं। मनहरण । जब इस आतमाके पूजा दान शील तप, __संजम क्रियादिरूप शुभ उपयोग है । १. मलकी खानि । २. द्विधा-दो प्रकार । ३. शिवपुर-मोक्ष ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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