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________________ प्रवचनसार [ १३९ इहां ताई सर्व गाथा १४६ और भाषाके छंद सर्व ५८१ । पांचसौ इक्यासी भये. सो समस्त जयवंत होहु । मिती मार्गशीर्ष शुक्ल पष्ठी ६ शुक्रवारे संवत् १९०५ । काशीजीमें वृन्दावनने लिखो मूल प्रति । सो जयवंत होहु । भों नमः सिद्ध भ्यः । अथ षष्ठ ज्ञेयतत्त्वान्तर्गत-व्यावहारिक जीवद्रव्याधिकारः मंगलाचरण-दोहा । श्रीमत तीरथनाथ नमि, सुमरि सारदा 'संत । जीवदरवको लिखत हों, विवहारिक विरतंत ॥१॥ (१) गाथा-१४५ व्यवहार जीवत्वका हेतु । मनहरण । सहित प्रदेश सर्व दर्व जामें पूरि रहे, एसो जो अकाश सो तो अनादि अनंत है । नित्त नूतन निराबाध अकृत अमिट, अनरच्छित सुभाव सिद्ध सर्वगतिवंत है । तिस पटदर्वजुत लोकको जो जानत है, सोई जीवदर्व जानो चेतनामहंत है । वही चार प्रानजुत जगतमें राजे वृन्द, अनादि संबंध पुद्गलको धरत है ॥२॥ . साधु-मुनि । २ नित्य-अविनाशी ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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